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फिल्म ‘आखिर पलायन कब तक’ हिंदुओं को पलायन करने पर मजबूर करने वाले कानून के प्रति जागरूकता लाएगी यह फिल्म

फिल्म ‘आखिर पलायन कब तक’  हिंदुओं को पलायन करने पर मजबूर करने वाले कानून के प्रति जागरूकता लाएगी यह फिल्मफिल्म 'आखिर पलायन कब तक' हिंदुओं को पलायन करने पर मजबूर करने वाले कानून के प्रति जागरूकता लाएगी यह फिल्म

नब्बे के दशक में जिस तरह से हिंदुओं का कश्मीर से पलायन हुआ था, उस पर बहुत कुछ लिखा व दिखाया जा चुका है.उस वक्त के जम्मू कश्मीर के हालात व हिंदुओं के वहां से पलायन को लेकर ‘द कश्मीर फाइल्स जैसी फिल्म भी बन चुकी है. कश्मीर में जो कुछ हो रहा था, वह तो कानूनी व इंसानियत के खिलाफ था. लेकिन हिंदुओं का पलायन तो पूरे देश के कई हिस्सों से हो रहा है. और ऐसा हमारे देश के एक कानून के चलते हो रहा है. जिसकी सुनवाई कहीं नही है. इसी मुद्दे को उठाते हुए बाड़मेर, राजस्थान के एक गांव से आयी लड़की सोहनी कुमारी ने फिल्म “आखिर पलायन कब तक बनायी है. जिसका निर्देशन व लेखन मुकुल विकम ने किया है. फिल्म के कलाकारों में राजेश शर्मा, भूषण पटियाल, सोहनी कुमारी, चितरंजन गिरी जैसे कलाकार शामिल हैं। यह फिल्म 16 फरवरी को पूरे देश के सिनेमा घरों में प्रदर्शित होने जा रही है.

मंगलवार, 6 फरवरी को अधेरी, पश्चिम मुंबई के सिनेपोलिस मल्टीप्लैक्स में फिल्म “आखिर पलायन कब तक” का ट्रेलर लांच हुआ, ट्रेलर देखकर अहसास हुआ कि यह फिल्म जमीन हड़पने की कहानी है, जहां एक धर्म समुदाय को निशाना बनाया गया है. वैसे इस ट्रेलर लांच के अवसर पर छह पीड़ित परिवार भी आए हुए थे, जिन्होने अपनी व्यथा सुनायी इनकी व्यथा सुनकर अहसास हुआ कि हिंदओं के पलायन की मूल वजह हमारे देश का ‘वक्फ एक्ट 1995’ ही है, यह 1954 के बने कानून
का ही संशोधित एक्ट है, जिससे वक्फ बोर्ड को असीमित अधिकार मिल गए हैं.

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इतिहास में गहराई से देखने पर यही पता चलता है। भारतीय संविधान के धर्मनिरपेक्ष ढांचे के अनुरूप वक्फ अधिनियम 1954 में भारतीय संसद में पारित किया गया था। इस अधिनियम के पीछे का विचार अल्पसंख्यक हितों की देखभाल करना था, जिसमें वक्फ बोर्ड को दान, मस्जिदों के निर्माण के लिए भूमि आवंटित की जाएगी। तत्कालीन सत्ता प्रतिष्ठान ने सोचा कि पाकिस्तान के विपरीत, जिसने पलायन करने वाले हिंदुओं की जमीनें छीन लीं, भारत सरकार पलायन करने वाले मुसलमानों की जमीनों पर कब्जा नहीं करेगी। वह जमीनें वक्फ बोर्ड को दे दी गई। हालाँकि, 1995 में एक संशोधन ने कथित तौर पर वक्फ बोर्ड को किसी भी भूमि पर दावा करने की अनुचित शक्तियाँ दे दी हैं।

वक्फ के साथ भूमि के एक टुकड़े पर विवाद को केवल वक्फ न्यायाधिकरण द्वारा ही निपटाया जा सकता है। उनके आदेश को भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भी चुनौती नहीं दी जा सकती। फिल्म का ट्रेलर लांच होने के बाद फिल्म की निर्माता और फिल्म में अहम किरदार निभाने वाली अभिनेत्री सोहनी कुमारी ने कहा- “यह फिल्म लोगों की आवाज है, किसी समुदाय विशेष की नही. हमारी फिल्म गलत व सही की बात करती है. हम जो गलत है, उसे गलत कहने में यकीन करते हैं. यह फिल्म बनना आज की तारीख में बहुत जरुरी है. मैं आपको एक घटना बताती हूँ, मेरे नाना जी का 96 साल की उम्र में इंतकाल हो चुका है.

उससे कुछ दिन पहले मैने उनसे कहा कि अकबर महान राजा थे. नाना जी ने मुझे अपने पास बुलाया और मुझे दो थप्पड़ लगाते हुए कहा- “हमें पता है यह क्या था.” सोहनी कुमारी की बतौर निर्माता “आखिर पलायन कब तक” पहली फिल्म है. जब हमने उनसे पूछा कि पहली फिल्म बनाने के लिए उन्होने यह बोल्ड विषय क्यों चुना?तब सोहनी कुमारी ने कहा- “मैं सामाजिक मुद्दे पर एक बेहतरीन फिल्म बनाना चाहती थी क्योंकि मैं अपने देश व समाज के लिए कुछ अच्छा करना चाहती हूँ, जैसा कि आप जानते हैं कि मैं जमीन से जुड़ी हुई हूँ, मैं बाड़मेर, राजस्थान से हूँ, गांव से मुंबई पहुंचने तक मैंने बहुत कुछ देखा है. मैं राजनीति हो या जियो पोलीटिक्स हो, हर चीज से खुद को कनेक्ट करती हूँ मैं हर युवक व युवती से कहना चाहेंगी कि उसे पता होना चाहिए कि देश में क्या हो रहा है.

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आज से बीस साल पहले क्या हुआ था, क्यों हुआ था आज से दस साल बाद क्या होने की संभावनाएं हैं. मेरी तो रूचि यह सब जानने में रहती है. जब मैने अपने स्तर पर पढ़ाई की, सोचा तो पाया कि सिनेमा में अच्छा काम हो रहा है. लोगों को फिल्में पसंद आ रही हैं. लेकिन वास्तविक घटनाओं पर फिल्मकार भी आँखे मूँदे रहता है. हमारे देश में कई खतरनाक कानून बने। हुए हैं, जिनका लोगों तक पहुँचना अनिवार्य है. हमने अपनी फिल्म ‘आखिर पलायन कब तक’ में जिस मुद्दे को उठाया है, उससे हमारी युवा पीढ़ी अनभिज्ञ है. वह तो अपने ही मनोरंजन में डूबी हुई है.

मेरा मानना है कि हर युवक/युवती को मनोरंजन के साथ सच से भी वाकिफ रहना चाहिए. अन्यथा आपको कभी अहसास ही नहीं होगा कि आने वाले कल को क्या हो सकता है. वास्तव में हमारी युवा पीढ़ी लंबे समय से जिस तरह की फिल्में देखती आ रही है, उसी की उसे आदत लग गयी है. वह तो उसी परिदृश्य व माहौल में पूरी तरह से ढल चुका है. पर उसमें वह पूरी तरह से खुश हो, ऐसा भी नही है.मैं जिनसे मिलती हूँ, वह सभी बहुत ही अलग तरीके से व्यवहार करते हैं. जबकि मेरी राय में हर युवा को भारत के हर राजनीतिक व सामाजिक पहलू के बारे में पता होना चाहिए. हर युवा को जियो पोलीटिक्स के बारे में पता होना चाहिए हिए, मेरी मेरी तो इसमें काफी रूचि है. मैं बहुत कुछ पढ़ती हूँ ढेर सारे वीडियो देखती हूँ. फिल्में देखती हूँ, मैं भविष्य में भी फिल्में बनाती रहूँगी.” फिल्म में ईमानदार व सच को सच की ही तरह बयां करने वाले पत्रकार का किरदार निभाने वाले अभिनेता चित्तरंजन गिरी ने फिल्म से जुड़ने की चर्चा करते हुए कहा- “शाहिद कपूर के साथ में ‘फर्जी’ करने के बाद मुझे ऐसी फिल्म की तलाश थी.

फिल्म 'आखिर पलायन कब तक'  हिंदुओं को पलायन करने पर मजबूर करने वाले कानून के प्रति जागरूकता लाएगी यह फिल्म

जो शांति की बात करती हो और मेरा किरदार चुनौतीपूर्ण हो क्योकि मेरा मानना है कि जब किरदार निभाने में कठिनाई आती है, तभी अभिनय करने में मजा आता है. क्योंकि जब हम ट्रेनिंग लेते हैं, तो हमें किरदार के सारे एंगल पर शोध करना सिखाया जाता है. कई बार किरदार बहुत ज्यादा स्टीरियो टाइप होते हैं.तब सवाल उठता है कि क्या किया जाए. क्योंकि फिल्म की स्किप्ट अच्छी है, निर्देशक अच्छे हैं, फिल्म भी अच्छी बन रही है. तब हमें अपना कविंशन डालना पड़ता है. पर जब हमें कोई किरदार गहराई वाला मिलता है, मसलन -फिल्म ‘आखिर पलायन कब तक’ का किरदार है, तो यह काफी चुनौतीपूर्ण है. यह हमारे सामने चुनौती यह थी कि हमें जो बात कहनी है, वह पूरी तरह से जेन्यून तरीके से कहनी है.तो उसके लिए पहले हमें खुद इमानदार होना था. फिर किरदार की इमानदारी को समझना था. जब इन चुनौतियों का आदान प्रदान होता है तो अभिनय करने में मजा आता है.”

फिल्म’ आखिर पलायन कब तक के अपने पत्रकार के किरदार की चुनौतियों की चर्चा करते हुए चित्तरंजन गिरी ने कहा- “सच बोलना क्योंकि एक पत्रकार की जो सच्चाई है, पत्रकार जिस तरह से सच सामने लाता है, उसका काम तो सिर्फ सच को लोगों तक पहुँचाना ही है. जो भी सच है. उसे उसी तरह से लोगों के सामने रखा जाए फिल्म में मेरा एक संवाद है- “गलत को गलत नही कहोगे, तो जो नासमझ है, वह उसे ही सच समझ बैठेगा.” फिल्म के लेखक व निर्देशक मुकुल विक्रम ने कहा- “मैं अपनी फिल्म को बोल्ड नही बल्कि आज के वक्त की सबसे बड़ी जरुरत वाली फिल्म मानता हूँ, हम किसी समुदाय के खिलाफ कोई बात नहीं कर रहे हैं. हम तो देश के कानून की बात कर रहे हैं.” ‘आखिर पलायन कब तक में मुख्य खलनायक का किरदार निभाने वाले अभिनेता धीरेंद्र द्विवेदी किसी परिचय के मोहताज नही है.

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राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से प्रशिक्षण हासिल करने के बाद मुंबई आकर उन्होने फिल्म ‘कमीने में बतौर सहायक निर्देशक काम किया उसके बाद ‘पान सिंह तोमर, ‘इश्किया’, ‘पीके धक धक’, भूतनाथ रिटर्न सहित कई फिल्मों व ‘छूना’ सहित कुछ वेब सीरीज में अपने अभिनय का जलवा दिखा चुके हैं. इस फिल्म के किरदार की चर्चा करते हुए उन्होने कहा- “मैने इस फिल्म में नकारात्मक किरदार निभाया है. जिसकी वजह से एक परिवार पीडित हो रहा है, यह परिवार लाचार है और उस परिवार की लाचारी का यह किस तरह फायदा उठा रहा है. किरदार की अपनी एक यात्रा है. उसका अपना सामाजिक व राजनीतिक दबदबा है. यह किरदार मेरी निजी जिंदगी से काफी अलग है.” धीरेंद्र द्विवेदी ने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा- “मेरी उम्र चालिस वर्ष है. फिर भी फिल्म ‘आखिर पलायन कब तक में जिस मुददे की बता की गयी है, उस मुद्दे की जानकारी नहीं थी. अब जो मुद्दे निकलकर बाहर आ रहे हैं. मुझे पता चल रहे हैं, वह सारी जानकारियां दबायी हुई थीं.

यह भी एक दिक्कत थी. तकलीफ थी, ढेर सारे कानून ऐसे हैं, जो कि अभी भी दबे हुए हैं. ढेर सारी सरकारी नीतियां हैं, जो कि लंबे वक्त से चली आ रही हैं.न तो पत्रकारों को मालुम है और अगर उन्हें पता था तो उन्होने कभी इस कानून/मुद्दे को उजागर भी नहीं किया हमें अखबार में इस बारे में कभी पढ़ने को नही मिला हमने इस बारे में किसी समाचार चैनल पर भी नहीं सुना. आज हमें इसी तरह के दबे कानूनों के बारे में पता चलता है और हम उस पर फिल्म बना पा रहे हैं, यह स्वतंत्रता हमें मिली है. मुझे नही लगता कि कुछ समय पहले तक फिल्मकार के पास इस तरह की स्वतंत्रता थी. सच कहूँ तो आज भी उतनी स्वतंत्रता नही है. आज भी सवाल तो आते हैं. अभी कुछ देर पहले ही एक पत्रकार ने सवाल उठाया कि क्या ‘आखिर पलायन कब तक ‘प्रपोगंडा फिल्म’ है.

तो यदि हम समाज में घट रही सच्ची घटनाओं को फिल्म के माध्यम से पेश करते हैं, तो ‘प्रपोगंडा फिल्म का तमगा लगा दिया जाता है. इसका अर्थ यह कि इस तरह के लोग नहीं चाहते कि सच बयां करने वाली फिल्में बनायी जाएं पर जो हमारी नजरों के सामने हो रहा है, वही तो हम दिखा रहे हैं. इसे आपप्रपोगंडा कैसे कह सकते हैं.” फिल्म में अभिनय करने के अनुभवों की चर्चा करते हुए धीरेंद्र द्विवेदी ने कहा- “बहुत अच्छा रहा. मैने इससे पहले मुकुल विकम केसाथ एक फिल्म “रांग लीला” कर चुका हूँ, तो हम एक दूसरे की कार्यशैली से काफी परिचित थे.” फिल्म में पुलिस अफसर का किरदार निभाने वाले अभिनेता भूषण पट्टाली की यह पहली फिल्म है. ट्रेलर लांच के अवसर पर उन्होने कहा-“मैं मूलतः हिमाचल प्रदेश से हूँ और अभिनय का शौक तो बचपन से रहा है. हर बालक सिनेमा देखते हुए खुद को भी उसके हिस्से के रूप में देखने लगता है. इसीलिए मैने दिल्ली आकर अपनी बीटेक की पढ़ाई पूरी की. मैने दिल्ली में काफी थिएटर किया.

कुल मिलाकर चौदह पंद्रह नाटकों में अभिनय किया. कुछ नाटक निर्देशित भी किए, यह 2006 से 2008 तक की बात है. उसके बाद बिजनेस और फिर मुंबई आना. अब ‘आखिर पलायन कब तक” से अभिनय जगत में कदम रख रहा। ‘आखिर पलायन कब तक” में ऐसी क्या खास बात आपको नजर आयी कि आपने इसी फिल्म से बॉलीवुड में कदम रखने का निर्णय लिया? इस सवाल पर उन्होने कहा- “मुझे एक बेहतरीन कहानी व किरदार की तलाश थी.

तभी एक दिन मुकुल विकम ने मुझे यह कहानी व मेरा किरदार सुनाया मुझे इस फिल्म में एक ऐसे इंसान का किरदार निभाने के लिए कहा गया, जैसा कि मैं निजी जिंदगी में कहीं से भी नही हूँ इस किरदार में मुझे चुनौती नजर आयी, मैने अपनी तरफ से इस किरदार के माध्यम से दर्शकों के बीच अलग पहचान बना पाउं, इसकी कोशिश की है.इस किरदार को पांच छह माह तक जीने के बाद इससे छुटकारा पाना मेरे लिए काफी कठिन रहा. ” भूषण पट्टाली ने आगे कहा- मुझे लगता है कि इस तरह के विषय पर फिल्म बननी आवश्यक थी मैने तो इस फिल्म में अभिनय करते हुए इंज्वॉय किया,.

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